कीर्तिध्वज लहरा रहे अपराध के
आचरण आदर्श के बौने हुए।
रक्तरंजित हो रही सद्भावना
यश-विमंडित है घृणा दुर्भावना
हिमशिलाओं पर उगे ज्वालामुखी
भेड़िया खूँखार मृग बौने हुए।
शंख गूँगे हो गए आह्वान के
सो रहा है सूर्य चादर तान के
बाड़ ने चर ली उजाले की फसल
खेत के गद्दार बिचकोने हुए।
ढो रही प्रतिभा विवश लाचारियाँ
पेट की बुझती नहीं चिन्गारियाँ
छोड़ देते श्वान, जिनको सूँघकर
भूख का उपचार वे दोने हुए।
घट बुजुर्गों का रहा सम्मान है
चाय में चीनी नहीं अपमान है
घर बनाए जिनने, उनके ही लिए
आज दुर्लभ गेह के कोने हुए।